एक अधिकारी का जीवन

एक अधिकारी का जीवन! 


उम्र थी 3, सीखा था ‘क’ से कबूतर,
और उम्र हुई जब 14, कलम पकड़कर लिखी क से कई कविताएँ।
अब कविताओं की कलियों से
कारगर हुई जीवन को नए नज़रिए से देखने में।
तब तक कबूतर उड़ गया और काग़ज़ काला हो गया l
फिर जब अगला पन्ना पलटा
तो देखा क से कायर और क से क्रूरता का कफ़न सजा था,
जिस पर जाकर मैं बैठ गई।
जब भी जीवन में द्वंद्व हुआ
तो सरल और सुविधा भोगने की ख़्वाहिश को
ख से लिखकर सो गई।
ख से कितनी बार मैंने ख़्वाहिशात की खिड़की तोड़नी चाहिए,
पर उसी काँच पर जा गिरी मैं
और दायरों के गड्ढों में
और गहराई में जब मेरी खोपड़ी टकराई
तब मुझे अक़्ल आई
अपनी अ से असमर्थता की
अ से आनंद तो मुझे याद भी न आया।
ग से मैंने कितनी बार गणेश सा गुणवान बनना चाहा,
पर हर बार मैं गंगा सी मैली बनकर भी गौरवान्वित महसूस करती गई।
कितनी बार मैंने चाहा कि मैं घ से घड़ी पहनकर बाहर निकलूँ,
पर सब कहते हैं वक्त बहुत ख़राब है
और क़ायदे की घड़ी पहनना
इस सत्ता में आज़ाब है।
शिव को याद करके मैंने ङ से
सचाई के डमरू बजाने का सोचा,
तब मैंने डर के माहौल में
घरवालों के हाल को याद करके,
अपनी चमड़ी को खुद ही नोचा।
च से छाता लेकर मैं भी गई
भ्रष्टाचार को अनदेखा करने,
पर पानी जब सिर तक आया,
तो नाव के चप्पू को फेंककर,
ज से जहाज़ का सहारा लेकर,
मैंने अपने आप को सबसे पहले
खुद बचाया।
झ से झाड़ू लेकर
घर का कूड़ा निकालकर
गंदगी निकाली बाहर,
पर मन ही जब मैला रह गया
तो स्नान भी न कर पाया
मेरे तन को साफ़।
ञ को याद करके
तो मुझे कोई रास्ता ही न नज़र आया।
अपने आप से मैंने तब किया सवाल
कि क्या हो गई हैं मेरी आँखें ख़राब?
इसलिए मैंने अधिकारी वर्ग में
फ़ाइलों को इधर से उधर घुमाया।
ट से टक्करे खाकर
घूम फिर कर जब वह मेरे पास लौटी,
तो ठ से ठुड्डी पर हाथ रखकर
मैंने भी ठ से ठिठुरते हुए
गणतंत्र को सुरक्षा का लिबास पहनाया।
ड से डगर पर चलकर
देश के डकैतों के साथ
करनी चाही जब सही काम की संधि,
तो मिले पर्चे हज़ार
और स्थानांतरण की धमकी कई बार।
पर ढ से ढिठाई का पाठ सीखकर,
जब मैंने किया सही विकल्प का चुनाव,
तो ण से मिला न कोई अपना
साथ देने वाला इस पल
और महसूस किया मैंने खुद को विफल।
पर त से तटस्थ रहकर
तबादलों की उलझन
भी अबकी बार धैर्य से झेली,
और त से सही चुनाव की
तपस्या की नींद भी ले ली।

और सोचा मैंने कितनी बार कर लूँ थ से मैं भी थोक में गुनाहों का व्यापार।
पर थोड़ी ही देर बाद द से मेरे लिए भी खुले नए द्वार।
काश का मुक़दमा लड़ना बंद किया मैंने और ध से धैर्य का धनुष तोड़ा।
न से नैतिकता का आलिंगन कर,
प से पाखंड को दफ़न कर प्रतिज्ञा का दामन ओढ़ा।
फ से खूब फ़रेबियों के फ़लसफ़ो पर सिर झुकाया,
पर ब से उनकी बर्बरता का फ़ैसला कभी न सुनाया।
सुन्नी सबकी करी मन की।
भ से कितने ही भयIवह दृश्य देखे इस सफ़र में,
पर भ से भारत का स्वप्न न छोड़ा।
भ्रष्टाचार और भ्रूण हत्या के निकट जाकर,
म से मानसिक संतुलन बनाकर,
य से उसके प्रति यत्न किए।
र से समाज के रोग को अपना रोग न बनाया।
ल से लंका की आग को अपने घर में न लगाया।
व से अपनी वानरसेना की मदद से खूब काम किया साकार।
श से शाश्वत रखा अपना आज।
स से संवेदना के कारण जब सामाजिक कुरीतियों ने मुझे जकड़ लिया
और जब मैंने अपनी करुणा का जुर्माना भरा,
तब स से मैंने कितनी बार साहस लिखना चाहा
पर हर बार मैं शिकार बनती गई अपनी असमर्थता की।
ह से मैंने भी हिम्मत और हौसले की बात करी
पर याद आई मुझे बस हिंसा और हत्या।
पर अ से फिर कोई मुझसे बेहतर अधिकारी आकर
वहाँ पर हिंदुस्तान लिख गया।

Leeza

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