अभिमन्यु*
*अभिमन्यु*
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सकल विश्व में शूरता की लीक जब खींची गई
पुरुषार्थ की अग्नि में समराग्नि भी भींची गई
नाम सब वीरों तब लिक्खा अलग आकाश में
खींचा जिन्होंने पूर्ण विश्व को देवमयी प्रकाश में
उदाहरण कई देता आ रहा इतिहास है पुरुषार्थ के
श्याम, लक्ष्मण, राम, भीष्म, युधिष्ठिर, पार्थ के
इतिहास है जिनका कथानक स्वर्णाक्षरा दीपितमयी
दुर्धर्ष, दुष्कर, दुःसह जो क्रिड़ा समर खेली नयी
वीरों कि इसी भीड़ में सहसा अलग एक नाम है
एक रथी जिसकी कहानी का अलग परिणाम है
अचरज नहीं अतीत ने रखा बड़ा वह काम ही
जिसके शौर्य का बखान था स्वयं उसी का नाम ही
है कथा उस शूरवीर, विद्युत सखा, परमार्थ की
मातुल हुए श्रीकृष्ण जिसके वीरवर सुत पार्थ की
जननी भयी माता सुभद्रा अर्जुन वामंगिनी
थी मत्स्यराज विराट सुता उत्तरा अर्धांगिनी
न अधिक कोई हुआ शस्त्रास्त्र में गुणवान से
जिसको मिली शिक्षा धनु की स्वयं भगवान से
रणधीरों की भीड़ में वह बालक प्रशांत था
पाण्डवों के व्योम में वह बालक शशांक था
गांडीव की टंकार, माधव पांचजन्य की उद्घोषणा
कुबुद्धि सुयोधन प्रतिशोध, कुटिल शकुनि योजना
महासमर रणस्थल सज रहा काल के प्रतिघात का
था मानव ही लक्ष्य जहां मानव आघात का
थे रुण्ड मुण्ड गिर रहे थे खिन्न अंग गिर रहे
कोई वाजियों के पद तले कृपाण संग गिर रहे
कर कटे पद कटे, न मिला किसी का शीश ही
थे मानवों के काल बसते मानवों के बीच ही
वो युद्ध जिसकी नींव में बसा केवल धर्म था
उस युद्ध को जितने का मंत्र बस अधर्म था
समर्थ, सार्थक, साधक स्वरूप सबने मर्यादाएं तोड़ी
मध्य समर में वीरगणों ने धर्म पताकाएं छोड़ी
दिवस त्रयोदश महासमर का रचा जब इतिहास गया
उस रोज समर भूमि में लड़ने कोई विनाश गया
पुरुराज को बंदी बनाने का मिला आदेश था
इसलिए भी दिवस त्रयोदश और कुछ विशेष था
छल छद्म से समर से पार्थ को कर दूर
तथा करें गुरु द्रोण तद रचना चक्रव्यूह क्रूर
भेदन रहस्य अर्जुन सिवा न जानता है कोई
तब पक्ष पाण्डव अस्त्र शस्त्र डाल देगा सोई
व्यग्र यूं चिन्तन मनन में क्षोभ में विस्तार
सोचते थे चक्रव्यूह का पुरुश्रेष्ठ प्रतिकार
जब सामने आया नहीं उपाय कुछ निष्कर्ष
अभिमन्यु तब आया सभा में आयु षोडश वर्ष
गर्वित स्वरों में गर्जना करता हुआ वह घोर
कहता हुआ-"हूं जानता व्यूह भेदना कठोर
सौभद्र का विश्वास देख डोले तनिक दिनमान
गर्भावस्था ज्ञान है यह तात का अवदान
सौभद्र बोला आज रण में मैं करूंगा सैन्यदल अगुवाई
उस सी न थी उस क्षण किसी भी वीर की तरुणाई
किया नहीं चाहते हैं कार्य धर्म के विपरीत धर्मराज
किन्तु देखकर साहस तेज मुख सौंपा उसे ये काज
अवगत कराने हाल हाल सब लेने विदा निज प्रियसी से आज
पहुंचे उत्तरा के कक्ष में अभिमन्यु ले विश्वास मन में आस
ह्रदय आलिंगन भरे निज नाथ के वक्ष पर धर शीश
नाथ को समझा रही, बता रही मन की रह रह टीस
परिचित भलिभांति हूं मैं क्षत्राणियों के धर्म से सविशेष
कर तिलक हैं भेजती रण में न करतीं क्लेश
किन्तु आज रह रह उठ रही है जाने कैसी हूक
कर्कश ध्वनि सी जान पड़ती मधु कोयलों की कूक
अशुभ आगमन अनुभूति होती आज है प्राणेश
तुम उत्तरा के प्राण रहो उत्तरा के देश
विस्तृत गगन आकाश में घन काले बादल देख
मन है हिंडोले खा रहा कुछ वायु देता वेग
तुम बिन न जीवन चेतना, तुम बिन न जीवन कल्पना
बस एक दिन की बात है प्रथमांतिम ये प्रार्थना
मानिए हे आर्य! हठ मत ठानिए रण की अभी
शंकित ह्रदय शंकाओं से मानिए मन की अभी
मुझको न मिले सुख कोई दें ईश भले ही त्रास
संताप सब सहर्ष लूंगी जो आप होंगे पास
यों कण्ठ भारी हो गया हुए अश्रु पूरित दृग
खुदसे विवश हो ज्यों की कोई कस्तूरी मृग
तब निरख शीतल नयन निज संगिनी के कर लिए
कहने लगा अभिमन्यु यों ढांढ़स बंधाने के लिए
हे! चन्द्रमुखी, पंकजनयन, प्राणाधार प्राणप्रिये
शंकाएं बस शंकाएं हैं चिन्तन न तनिक कीजिए
ये स्वीकार कर निवेदन समर जो मैंने तज दिया
तो सोंलो हे प्रियसी! कितना बड़ा अपयश लिया
बाद फिर स्वजनों को मुख मैं नहीं दिखाऊंगा
क्षत्रिय तो रहूंगा किन्तु क्षत्रिय न कमाऊंगा
ज्वलंत रिपु दहन ही तो निज क्षत्रियता प्रमाण है
है भेदना अरि वक्ष कह रहे ये मेरे बाण हैं
शत्रु दल साहस बढ़े तत्क्षण कुचलना चाहिए
प्रहार पूर्व विषधर भुजंग उसे मार देना चाहिए
आयु पञ्चदश वध ताड़का किया था प्रभु राम ने
तार कंस मुक्त मथुरा कराई दश वर्षीय शाम ने
किस भांति अभिमन्यु कहो पद फिर पीछे धरे
क्यों कुल वंश की कीर्ति सुकीर्ति करे
कौरवों ने किया नहीं क्या छल छद्म औ' पाषण्ड
पर्याप्त है उनके लिए कहो मृत्यु का भी दण्ड
उन कायरों का सुन अट्टहास कृपाण न रुकता प्रिये
मन चाहता है चीर देना भाल अरिदल का प्रिये
निशा तम घना हो घेरता प्रज्ञा को चहूं ओर से
न दिखता समक्ष अरुणाभ के भागता है भोर से
हैं झुण्ड में शृगाल तो भीत की क्या बात है
सिंहों के लिए द्वंद्व ये तो खेल सा अभ्यास है
किंचित न व्याकुल चित्त व्यर्थ स्वपक्षधर भगवान हैं
क्षर आप होंगे सभी जय मार्ग मध्य जो व्यवधान हैं
विरांगनाओं सी कर तिलक निज नाथ को तुम दो विदा
कह वचन अंतिम अभिमन्यु अग्रसर रण को हुआ
हो ज्वालामुखि विस्फोट यों कहने लगा वो वीर
शीघ्र रथ सजाओ सारथी मन हो रहा अधीर
क्षुधा युक्त ज्यों सिंह विचरता प्रतिपल घातक होए
त्यों विलम्ब रण को क्षण में उसको आतप होए
चढ़ स्वरथ चला वह महारथी भर महादेव जयघोष
गूंजा चतुर्दिक कुरुक्षेत्र में ये अभिमन्यु उद्घोष
लगा सुलाने शर सय्या पर अरिदल आनन गात
चन्द क्षणों में शत् - शत् रुण्ड दिये थे काट
व्यूह भेदन प्रथम द्वार का हुआ क्षण में फलीभूत
किंतु अकेला वह घुस पाया हुई बड़ी यह चूक
बाकी सब शूरगण रोके यह जयद्रथ का अवदान
अपराजेय था एक दिवस वह शिव शक्ति वरदान
किंतु तनिक चिंता की रेखा माथे पर ना आई
चरम श्रेणी बल पर पहुंची थी उसकी तरुणाई
दी छिपा भूमि बालों से शव से रिपुदल सब भयभीत
महारथी विस्मित खड़े, अरिदल से आती रह रह चीख
रौद्र रूप ले भटक रहा अरिदल में वह अवतारी
जहां कहीं शर गिरते विस्फोट हुए अति भारी
त्राहि-त्राहि कह उठे सकल गौरव पक्षाधारी
ज्यों शंभू प्रतिमा हो विचरती रूप ले धनुधारी
एक-एक कर लगा ध्वंस करने वह व्यूह के द्वार
उसकी विशीख शक्ति का मिला नहीं कोई वार
उसे रोकने आया समक्ष फिर अनुज कर्ण सुकुमार
किया अलग धड़ अभिमन्यु ने मात्र एक प्रहार
देख कर यह दृश्य कर्ण कुछ क्रोधित हुआ
अभिमन्यु वध हित वीर आग से पोषित हुआ
कर धनुष संधान सौभद्र का मस्तक किया
शक्ति छोड़ी फिर प्रखरतर वार यों उस पर किया
डिगा तनिक न वीरवर वह प्रचंडतम प्रहार से
शक्ति काटी एक एक निज बाण के प्रतिवार से
राधेय को अवसर न फिर संभलने का दिया
कोदण्ड तोड़ धन्वा काठी वार निरंतर किया
हुआ पराजित कर्ण समझकर लक्ष्मण आगे आया
द्वंद्व युद्ध का अभिमन्यु को उसने तूर्य सुनाया
दुर्योधन समय था यह दुर्योधन सा बलवान
किंतु सम्मुख मृत्यु खड़ी को न पाया पहचान
लक्ष्य किया लक्ष्मण को कोदण्ड बाण चढ़ाया
हुआ शक्ति का आवाहन उस पर वो बाण चलाया
शर चीर गया वह वक्ष उसको यमलोक पठाया
अभिमन्यु की देख यह शक्ति अरिदल सब घबराया
ऐसा हाहाकार मचा सेना में सब भागे फिरते चारों ओर
मानव नहीं ये देव रूप है मचा सेनानी रहे यह शोर
देखकर रण कौशल सौभद्र का कहने लगे गुरु द्रोण
लगता आज प्रलय जागा है करने युद्ध क्षुधा को मौन
जैसे नरदन नंदन करते हों विषधर पर अतिभारी
याकी कुपित शंकर करते हो नृत्य अति प्रलयंकारी
रक्त पिपासनि काली खुद खप्पर भरने आई हो
या मायापति ने भू पर कोई अद्भुत शक्ति चलाई हो
यों ऐसे फिरता सिंहों सा अरिदल में वह सेनानी
जान पड़ा कुकरों की भीड़ों में गज सा वह अभिमानी
विध्वंस देख निज सेना का दुशासन सामने आया
देख उसे अभिमन्यु गरजा मानो यम उतर धरा पे आया
बोला -"रे दुष्ट कहां था अबतक छिपता कायर बनकर
यह अभिमन्यु के बाण खोजते थे बस तेरा सर
चढ़ा धनुष प्रत्यंचा खींची चपला कड़कड़ कड़की
थे बादल भी कुछ गरजे, धरती भी थी कंपती
बोला- उऋण अभी होता हूं मात-पिता के ऋण से
चिर निद्रा में तुझे सुला मैं अपने भुजबल से
बाण एक फिर लगा दुशासन के शीश कवच पर जाकर
दस्यु गिरा वह मूर्छित होकर सूत ले गया भगा कर
युद्ध बचाना है, तो गुरुवर अभिमन्यु को मरना होगा
किसी भांति भी आज अर्जुन तनु का वध करना होगा
कहा कुपित सुयोधन ने द्रोणाचार्य निकट यह जाकर
रुका तनिक सौभद्र तब मध्य व्यूह के आकर
किये लक्ष्य उस पर खड़े थे सप्त महारथी रणधीर
शकुनी, दुशासन, सुयोधन, अश्वत्थामा, कृप, द्रोण, कर्ण वीर
देख उन्हें वह हंसा खिन्न करता उनका विश्वास
एक अकेला वह लड़ता था उन सातों के साथ
साध लक्ष्य जैसे ही उसने दी प्रत्यंचा खींच
एक बाण घुसा वक्ष में बिल्कुल बीचो-बीच
सप्त दिशा से फिर प्रहार उस पर होते घनघोर
टूट गया स्यंदन उसका वह बड़ा भूमि की ओर
नीरज खड़ा वह शूरवीर साहस पौरुषता की मूरत
क्रुद्ध अनैतिक युद्ध से शत्रु के काल सरीखी सूरत
बोला -सुनिए हे द्रोण गुरुवर मम तात आचार्य
क्या विजय इतनी जरूरी करें गुरुगण भी अनैतिक कार्य
नीरथ निशस्त्र खड़ा वह सप्त सम्मुख एकाकी
एक वीर योद्धा वह केवल बाकी सब रण त्यागी
दो खड़ग हाथ में तो मैं दिखाऊं तुम्हें शूरता
तुम कायरों को भी सिखा दूं मैं तनिक वीरता
आवेग में आक्रोश से रथ के पहिए को उठा लिया
शस्त्र बना फिर उसको लड़ना उसने प्रारंभ किया
किंतु फिर आहत हुआ शर बाण से तलवार से
गिर गया भू पर वह पर्वत शत्रु के प्रहार से
कहने लगा- अरे पामरों इस नीचता का फल तुम्हें
मिल जाएगा रण भूमि में आज या तो कल तुम्हें
मैं तो चला रणधीर सा सुरपुर सजाने के लिए
बैकुण्ठ को बैकुण्ठ से सुंदर बनाने के लिए
दो अंतिम बार क्षमा प्रियसी मैं वापस लौट नहीं पाया
वचन दिए थे जो तुमको उनको पूर्ण नहीं मैं कर पाया
अंतिम प्रणाम तुमको माता विदा करो निज सुत को
वीर पुरुष सा लड़ा मात होगा गर्व भी तुमको
है अंतिम संदेश यह नाम तात मातुल के देना
निज वीरपुत्र अभिमन्यु मृत्यु को व्यर्थ न जाने देना
किया प्रहार दुशासन सुत तब साध शीश संधान
अस्त हो गया तब रण व रणधीरों का दिनमान
आंधी सी कुछ आई, धरती कांपी रोई थी उर से
सुर और जलद भी रोए दो बूंद गिरी थी नभ से
लिख गया सुभट अभिमानी कथा अमर शर बल से
याद करेगा मानव जिसको रोष वेदना सबसे
By Leeza sharma
अद्भुत
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