एक व्यंगकार का मृत्युदर्शन
एक व्यंगकार का मृत्युदर्शन
व्यंगकारों का दृष्टिकोण मानवीय अपमान का अवलोकन है, मानव को चाहिए कि वह जीवन शैली और व्यंग शैली मे समांतर स्थापित करें l व्यक्तिगत प्रपंचो से मुक्त हो और सामाजिक ढांचौ का विध्वंश करें , यही मात्रा एक ऐसा हथियार है, जो उसे दीर्घकालिक प्रगतिशीलता की ओर उत्कृष्ट करेगाl
मानव और मरे हुए का फर्क मात्र इतना ही है कि मरा हुआ
अचेत है और चिंतन की शक्ति और श्रम से दूर है ,जबकी जीवित सचेत है और चिंतन के योग्य है।
व्यंगकार का जीवन केवल चिंतन और कटाक्ष का नहीं, बल्कि अध्ययन और विचारों का भी है, जिस क्षण से उसका मस्तिष्क शून्य चेतना की ओर अग्रसर हो गया, वही मोड़ उसे आलोचनात्मक चेतना की ओर प्रभावित करता हैl सरपत दौड़ता चित, चेतना को तभी खोता है, जब वह शांत चेतना की गोद मे जा बैठता है, और उस क्षण उसे अपना जीवन व्यर्थ नहीं मालूम होता l अंतः, आंतरिक ध्यान और अंतर मन से मिलlव ही व्यंगकार का वास्तविक कौशल है l जिस दिन वो मृत्यु को पा लेता है, उस दिन वह बंधनमुक्त चेतना करने के योग्य हो जाता है, पर तब तक उसका समाज पर व्यंग करना, उसका उत्तरदायित्व है, मानसिक संतुष्टि और अलौकिक विरोध से जूझने का एक मात्र हथियार यही है l
यहीं है एक विशिष्ट और अल्हड़ व्यंगकार की चुनौती,मौत से पहले, जीवन काल में कटाक्ष करना, और अपने अंतिम कlल में, ठिठोली मारकर मौत को प्रेमपूर्व गले लगाकर एक अनंत अचेतना की ओऱ अग्रसर हो जाना ,कहने को मृत्यु सरल जान पड़ती है , पर वास्तव मे मानव जीवन पर पूर्णविरहाम लगाकर जीवन पर व्यंग ही तो कस्ती है !
धन्यवाद
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