मर्द और औरत
मर्द और औरत
ये आज़ादी उसके जाने से सीने पर भारी नहीं है जनाब
ये तो खुद की तन्हाई है जो अब मुझे काटती है कभी–कभार
मेरे महबूब को कुछ न कहना, मैं सारा गुनहा अपने सिर अंज़ाम लेता हूँ
वो तो इतना बेफ़िक्र था कि उसे मेरे होने न होने से कुछ ख़ास फ़र्क़ न पड़ा
मैं होता तो वो मुझे एक नज़र भर न देखता था,
मेरी बातों का उसके लिए कोई माने न होता थे...
मेरे महबूब को कुछ मत कहना, मैं सारा गुनाह मैं अपने सिर अंज़ाम लेता हूँ...
उसे खुद से इश्क़ था, मुझे उससे......
पर हमारे हाथ में है क्या इश्क़ करना?
मेरे हाथों में होता, तो मैं आज़ादी से इश्क़ करता
उम्र भर के रिश्तों की बेड़ियों से बंधने के ख़्वाब कभी न पिरोता
मैं मरता चाहे, मैं जीता, पर मैं आज़ादी से इश्क़ करता
मैं मार डालता हर उस इंसान को जिसने कैद को अपना मुस्तक़बिल बना लिया है
मेरे मुँड़ेर पर लाशें होती लानत की और मुद्दतों तक इंतज़ार कर रही, आस लगाए, बैठी मोहब्बतों की
मैं जला देता उन औरतों की आँखें जो अपने आशिक़ों की राह तकते–तक्ते
मरना क़बूल करती हैं, पर उन्हें छोड़ना नहीं
आज़ादी से डरती हैं पर मौत से नहीं
काश इश्क़ मेरे बस में होता तो मैं भी एक शागिर्द होता, शायर नहीं
पर मैं नाकाम शायर रह गया,
उन औरतों की तरह जो आज भी उम्मीद में हैं कि एक दिन वो बेगमे बनेगी और राज़ करेंगी,
पर नौकरियाँ बन जाती हैं उन शख़्सों की जिन्होंने उनके देह के अलावा किसी और से प्यार नहीं किया
महबूबा कहलाती हैं, होती हैं मेज़बानें, मरती नहीं हैं कमबख़्त, पर इंतज़ार में उमरें गुज़ार देती हैं
और क़बर से उठकर भी उस नiमर्द को याद करने का हौसला दिखाती हैं, जिसने उसकी क़बर तक न उठाई
जो उसके लिए एक अश्क़ तक बहाने से कतराता है, जिसे उसके जाने का ग़म नहीं पर सितम है
कि अब सुबह अब उसे चाय कौन देगा?
काश इश्क़ मेरे बस का होता जनाब
तो मैं कविता से इश्क़ कर लेती , पर मर्द से न करती
मर्द किसी का नहीं, और औरत एक जागीर से बंधकर पूरी ज़िंदगी काटने को तैयार हो जाती है
कितना फ़र्क़ है दोनों में, एक ही मिट्टी से बने
पर सबके मलाल अलग–अलग हैं, सबके ख़्वाब अलग हैं
किसी को ग़म है मोहब्बतों की बे-कद्री से , किसी को भूख है ताक़त के तख़्तों से
किसी का ख़्वाब है दुल्हन बनना, किसी का ख़्वाब है बस शादी करना
किसी का ख़्वाब है मार देना, किसी का ख़्वाब है इश्क़ में मर मिटना
कोई सीता सा अग्नि परीक्षा दे देता है, कोई उर्मिला सा अपनी नींद का हिस्सा दे देता है,
कोई पार्वती सा घर-बार त्याग देता है, तो कोई मंदोदरी सा रावण के साथ 7 जनम ख़ुशी–ख़ुशी काट देता है,
मर्द किसी का नहीं होता, पर औरत सबकी हो जाती है I
पैदा होते के साथ ही वो घर की इज़्ज़त, समाज का दब्बा, धर्म की किताबों में देवी होती है, औरत
और फिर उसे लीपा–पोता जाता है पुरुष प्रधान समाज के धंधों में पिसने के लिए, उम्र कैद में घिसने के लिए
उसे पोता जाता है, ताकि उसे अत्याचार, अनिश्चितता, भेदभाव, भयावह न लगे
वो धीरे–धीरे सीख जाती है, या यूँ कहो… सीखा दी जाती है — ये कहना
“समाज है ही ऐसा तो क्या करें, सब देखते हैं लड़कियों को गंदी नज़र से,
तो रहने–ओढ़ने का ढंग तो लड़की को आना चाहिए ना?”
फिर कई बदक़िस्मत लड़कियों को जब आदमियों से प्यार हो जाता है,
तो वो सारी उमर उसकी चौखट पर गुज़ारने को तैयार हो जाती है
एक भी लड़की, औरत बनाने को तैयार नहीं होती,
और जब कोई औरत उनसे कह दे — “मर्द कोई प्यार करने की चीज़ है क्या?”
तो वो रोती है, बिलखती है, ठोकरें खाती है, अहिल्या-सी, मीरा-सी बावली हो जाती है, द्रौपदी-सी बेइज़्ज़त हो जाती है
पर वो चौखट नहीं छोड़ती, उस चौखट में वो अपना संसार ढूँढती है
जहाँ उसे पानी तक नहीं नसीब
लड़कियाँ महबूबा होना चाहती हैं, और फिर दुल्हनें बनना चाहती हैं
मर्द, मर्द बनना चाहते हैं, और हुकूमत करना चाहते हैं,
उनकी — जो उनके नाम का मंगलसूत्र डालकर अपने आप को मर्द जैसी नाकाम चीज़ का हिस्सा बनाती हैं
धीरे–धीरे बीवियाँ औरतें बन जाती हैं
मंगलसूत्र से वो अपने शौहरों की सोते समय हत्या करना चाहती हैं,
पर कर नहीं पाती — औलादों को बिन बाप का कैसे कर दें?
औलाद का मोह तो ख़सम के मोह से ज़्यादा बड़ा है ना I
औरतें , औरतें बन जाती हैं, पर बन नहीं पाती पूरी
मर्द , मर्द बनना चाहते हैं, और उस चाहत में अपने में धधकI लगा लेते हैं
जिस आग की जलन में उनकी दुल्हनें शादी के अगले दिन ही अपने आप को चूल्हे में झोंक कर अपना पूरा जीवन जीवन जला देती हैं
और फिर पूरी उमर उस जलन पर खुद ही मरहम लगाती हैं,
क़िस्मत वाली औरतें कुछ साल बीतने के बाद अपनी औलादों से मरहम लगवा लेती हैं
और ग़ैरत मंद औलादें कुछ साल और बीतने के बाद
ऐसे नIमर्दों को उस आग में जला देती हैं, जिसके वो सदियों से हक़दार हैं
तब कई औरतें अपनी ग़ैरत मंद औलादों की हिम्मत से अपने मर्द से जान छुड़ाती हैं
पर अब वो औरत नहीं रहती, अब वो घर का मर्द बन जाती है
और उनकी औलादें — उनके औदे का पदक बन जाती हैं
औरत और मर्द का फ़र्क़ जिस्म में नहीं, रूह में बसता है
जब औरत औरत से मर्द बन जाती है I
तो वो अपना एहसास खो देती है, छोड़ देती है मर्द के साथ पूरे संसार के प्रति अपना जुड़ाव
और मर्द अपनी मर्दानगी I
जब औरत का औरतपन मरता है, तो उसमें बस मर्द के अस्तित्व का मातम बचता है
दुल्हनें मर गईं, लड़कियाँ बेइज़्ज़त हो गईं, गृहणियाँ घर की चाय के टोपियों से कालिख माँजते हुए खो गईं
और औरतें औलादों को नमर्द बनाने में जीते-जी फ़ौत हो गईं
क्योंकि ऐसे मर्दों से तो भगवान भी डरता है
जो औरतों को मर्द बना छोड़ें और औलादों को हत्यारा,
ऐसी औरतों को समाज फिर ‘डायन’ कहता है और ऐसी औलादों को ‘बिन बाप का’।
और इस तरह संसार का रचयिता इन औरतों की रूहों को
अगले जनम मर्द के शरीर में कैदग्रस्त करता है I
और फिर ऐसा मर्द आगे चलकर विश्व युद्ध का संचालक बनता है,
संसार का अंत हो जाता है जब इंसान दुर्गा के भेष में संसार का अंत निश्चित करता है।
इंसानी हक़ीक़तों की शख़्सियतें परमाणु बम बनकर फटती हैं,
ब्रह्मांड अंतिम करवास के क़ायदे को पार करता है,
फिर एक नया संसार बसता है, जिसमें सिर्फ़ त्रासदी के उखड़े हुए खंभों का प्रमाण होता है, बस्तियों का नहीं।
औरत जब मर्द बनकर दिखाती है तो वह सारी मर्यादाएँ तोड़ जाती है।
कर्मकांडियों के मुँह से निकलता है ‘जय महाकाल’ और पड़ता है ‘महाआकाल’।
ये आज़ादी उसके जाने से सीने पर भारी नहीं है जनाब
ये तो खुद की तन्हाई है जो अब मुझे काटती है कभी–कभार
मेरे महबूब को कुछ न कहना, मैं सारा गुनहा अपने सिर अंज़ाम लेता हूँ
वो तो इतना बेफ़िक्र था कि उसे मेरे होने न होने से कुछ ख़ास फ़र्क़ न पड़ा
मैं होता तो वो मुझे एक नज़र भर न देखता था,
मेरी बातों का उसके लिए कोई माने न होता थे...
मेरे महबूब को कुछ मत कहना, मैं सारा गुनाह मैं अपने सिर अंज़ाम लेता हूँ...
उसे खुद से इश्क़ था, मुझे उससे......
पर हमारे हाथ में है क्या इश्क़ करना?
मेरे हाथों में होता, तो मैं आज़ादी से इश्क़ करता
उम्र भर के रिश्तों की बेड़ियों से बंधने के ख़्वाब कभी न पिरोता
मैं मरता चाहे, मैं जीता, पर मैं आज़ादी से इश्क़ करता
मैं मार डालता हर उस इंसान को जिसने कैद को अपना मुस्तक़बिल बना लिया है
मेरे मुँड़ेर पर लाशें होती लानत की और मुद्दतों तक इंतज़ार कर रही, आस लगाए, बैठी मोहब्बतों की
मैं जला देता उन औरतों की आँखें जो अपने आशिक़ों की राह तकते–तक्ते
मरना क़बूल करती हैं, पर उन्हें छोड़ना नहीं
आज़ादी से डरती हैं पर मौत से नहीं
काश इश्क़ मेरे बस में होता तो मैं भी एक शागिर्द होता, शायर नहीं
पर मैं नाकाम शायर रह गया,
उन औरतों की तरह जो आज भी उम्मीद में हैं कि एक दिन वो बेगमे बनेगी और राज़ करेंगी,
पर नौकरियाँ बन जाती हैं उन शख़्सों की जिन्होंने उनके देह के अलावा किसी और से प्यार नहीं किया
महबूबा कहलाती हैं, होती हैं मेज़बानें, मरती नहीं हैं कमबख़्त, पर इंतज़ार में उमरें गुज़ार देती हैं
और क़बर से उठकर भी उस नiमर्द को याद करने का हौसला दिखाती हैं, जिसने उसकी क़बर तक न उठाई
जो उसके लिए एक अश्क़ तक बहाने से कतराता है, जिसे उसके जाने का ग़म नहीं पर सितम है
कि अब सुबह अब उसे चाय कौन देगा?
काश इश्क़ मेरे बस का होता जनाब
तो मैं कविता से इश्क़ कर लेती , पर मर्द से न करती
मर्द किसी का नहीं, और औरत एक जागीर से बंधकर पूरी ज़िंदगी काटने को तैयार हो जाती है
कितना फ़र्क़ है दोनों में, एक ही मिट्टी से बने
पर सबके मलाल अलग–अलग हैं, सबके ख़्वाब अलग हैं
किसी को ग़म है मोहब्बतों की बे-कद्री से , किसी को भूख है ताक़त के तख़्तों से
किसी का ख़्वाब है दुल्हन बनना, किसी का ख़्वाब है बस शादी करना
किसी का ख़्वाब है मार देना, किसी का ख़्वाब है इश्क़ में मर मिटना
कोई सीता सा अग्नि परीक्षा दे देता है, कोई उर्मिला सा अपनी नींद का हिस्सा दे देता है,
कोई पार्वती सा घर-बार त्याग देता है, तो कोई मंदोदरी सा रावण के साथ 7 जनम ख़ुशी–ख़ुशी काट देता है,
मर्द किसी का नहीं होता, पर औरत सबकी हो जाती है I
पैदा होते के साथ ही वो घर की इज़्ज़त, समाज का दब्बा, धर्म की किताबों में देवी होती है, औरत
और फिर उसे लीपा–पोता जाता है पुरुष प्रधान समाज के धंधों में पिसने के लिए, उम्र कैद में घिसने के लिए
उसे पोता जाता है, ताकि उसे अत्याचार, अनिश्चितता, भेदभाव, भयावह न लगे
वो धीरे–धीरे सीख जाती है, या यूँ कहो… सीखा दी जाती है — ये कहना
“समाज है ही ऐसा तो क्या करें, सब देखते हैं लड़कियों को गंदी नज़र से,
तो रहने–ओढ़ने का ढंग तो लड़की को आना चाहिए ना?”
फिर कई बदक़िस्मत लड़कियों को जब आदमियों से प्यार हो जाता है,
तो वो सारी उमर उसकी चौखट पर गुज़ारने को तैयार हो जाती है
एक भी लड़की, औरत बनाने को तैयार नहीं होती,
और जब कोई औरत उनसे कह दे — “मर्द कोई प्यार करने की चीज़ है क्या?”
तो वो रोती है, बिलखती है, ठोकरें खाती है, अहिल्या-सी, मीरा-सी बावली हो जाती है, द्रौपदी-सी बेइज़्ज़त हो जाती है
पर वो चौखट नहीं छोड़ती, उस चौखट में वो अपना संसार ढूँढती है
जहाँ उसे पानी तक नहीं नसीब
लड़कियाँ महबूबा होना चाहती हैं, और फिर दुल्हनें बनना चाहती हैं
मर्द, मर्द बनना चाहते हैं, और हुकूमत करना चाहते हैं,
उनकी — जो उनके नाम का मंगलसूत्र डालकर अपने आप को मर्द जैसी नाकाम चीज़ का हिस्सा बनाती हैं
धीरे–धीरे बीवियाँ औरतें बन जाती हैं
मंगलसूत्र से वो अपने शौहरों की सोते समय हत्या करना चाहती हैं,
पर कर नहीं पाती — औलादों को बिन बाप का कैसे कर दें?
औलाद का मोह तो ख़सम के मोह से ज़्यादा बड़ा है ना I
औरतें , औरतें बन जाती हैं, पर बन नहीं पाती पूरी
मर्द , मर्द बनना चाहते हैं, और उस चाहत में अपने में धधकI लगा लेते हैं
जिस आग की जलन में उनकी दुल्हनें शादी के अगले दिन ही अपने आप को चूल्हे में झोंक कर अपना पूरा जीवन जीवन जला देती हैं
और फिर पूरी उमर उस जलन पर खुद ही मरहम लगाती हैं,
क़िस्मत वाली औरतें कुछ साल बीतने के बाद अपनी औलादों से मरहम लगवा लेती हैं
और ग़ैरत मंद औलादें कुछ साल और बीतने के बाद
ऐसे नIमर्दों को उस आग में जला देती हैं, जिसके वो सदियों से हक़दार हैं
तब कई औरतें अपनी ग़ैरत मंद औलादों की हिम्मत से अपने मर्द से जान छुड़ाती हैं
पर अब वो औरत नहीं रहती, अब वो घर का मर्द बन जाती है
और उनकी औलादें — उनके औदे का पदक बन जाती हैं
औरत और मर्द का फ़र्क़ जिस्म में नहीं, रूह में बसता है
जब औरत औरत से मर्द बन जाती है I
तो वो अपना एहसास खो देती है, छोड़ देती है मर्द के साथ पूरे संसार के प्रति अपना जुड़ाव
और मर्द अपनी मर्दानगी I
जब औरत का औरतपन मरता है, तो उसमें बस मर्द के अस्तित्व का मातम बचता है
दुल्हनें मर गईं, लड़कियाँ बेइज़्ज़त हो गईं, गृहणियाँ घर की चाय के टोपियों से कालिख माँजते हुए खो गईं
और औरतें औलादों को नमर्द बनाने में जीते-जी फ़ौत हो गईं
क्योंकि ऐसे मर्दों से तो भगवान भी डरता है
जो औरतों को मर्द बना छोड़ें और औलादों को हत्यारा,
ऐसी औरतों को समाज फिर ‘डायन’ कहता है और ऐसी औलादों को ‘बिन बाप का’।
और इस तरह संसार का रचयिता इन औरतों की रूहों को
अगले जनम मर्द के शरीर में कैदग्रस्त करता है I
और फिर ऐसा मर्द आगे चलकर विश्व युद्ध का संचालक बनता है,
संसार का अंत हो जाता है जब इंसान दुर्गा के भेष में संसार का अंत निश्चित करता है।
इंसानी हक़ीक़तों की शख़्सियतें परमाणु बम बनकर फटती हैं,
ब्रह्मांड अंतिम करवास के क़ायदे को पार करता है,
फिर एक नया संसार बसता है, जिसमें सिर्फ़ त्रासदी के उखड़े हुए खंभों का प्रमाण होता है, बस्तियों का नहीं।
औरत जब मर्द बनकर दिखाती है तो वह सारी मर्यादाएँ तोड़ जाती है।
कर्मकांडियों के मुँह से निकलता है ‘जय महाकाल’ और पड़ता है ‘महाआकाल’।
बंजर बस्ती, खाली समुद्र और गुमनाम शहरों का सन्नाटा इंसानी समाज को औरत के सही रूप से परिचित करवाता है—
जब वह चांडाल बनती है और मृतकों की लाशों को उन्हीं मुंडेरों से जाकर फेंक देती है जहाँ वे लड़कियाँ होने पर बैठकर इश्क़ की आस में दिन से हफ़्ते , हफ्तों से साल बिता दिया किया करती थी।
जब वह चांडाल बनती है और मृतकों की लाशों को उन्हीं मुंडेरों से जाकर फेंक देती है जहाँ वे लड़कियाँ होने पर बैठकर इश्क़ की आस में दिन से हफ़्ते , हफ्तों से साल बिता दिया किया करती थी।
नरक बन जाती है धरती और स्वर्ग लगने लगती है मौत।
काली जब विध्वंस करने पर आती है,
तो वह लहू की नदियों का सागर बनाती है; दया की भीख माँगते रह जाते हैं मर्द, पर उसका रोष शांत नहीं होता—
जब तक त्रासदी ही अंत बनकर कैलाश पर्वत को घर न बना दे,
अंत हो जाता है सृष्टि का, विश्वांश हो जाता है रचयिता का,
परमेश्वर भी तब औरत से इंसानी गुनाहों के पश्चाताप की भीख माँगता नज़र आता है।
हवैनियत तो अब धरती का नज़ारा बन जाता है।
मर्द का अस्तित्व अब मिट्टी-सा नज़र आता है, जब दुर्गा का रोष उसे उसकी सीमाएँ दिखाता है।
औरत जब मर्द- सी निर्दयी नज़र आता, तब वही औरत ही जगदंबा कहलाती है
जय भवानी, जय कमलारानी—यह तो इतिहास दोहराता है,
जब प्रकृति की पालनहारता ब्रह्मांड को अपना साहित्य पढ़ाती है
और एक दिन प्रकृति का अंत निश्चित कर स्वयं ही धरती में समाजlती है।
काली जब विध्वंस करने पर आती है,
तो वह लहू की नदियों का सागर बनाती है; दया की भीख माँगते रह जाते हैं मर्द, पर उसका रोष शांत नहीं होता—
जब तक त्रासदी ही अंत बनकर कैलाश पर्वत को घर न बना दे,
अंत हो जाता है सृष्टि का, विश्वांश हो जाता है रचयिता का,
परमेश्वर भी तब औरत से इंसानी गुनाहों के पश्चाताप की भीख माँगता नज़र आता है।
हवैनियत तो अब धरती का नज़ारा बन जाता है।
मर्द का अस्तित्व अब मिट्टी-सा नज़र आता है, जब दुर्गा का रोष उसे उसकी सीमाएँ दिखाता है।
औरत जब मर्द- सी निर्दयी नज़र आता, तब वही औरत ही जगदंबा कहलाती है
जय भवानी, जय कमलारानी—यह तो इतिहास दोहराता है,
जब प्रकृति की पालनहारता ब्रह्मांड को अपना साहित्य पढ़ाती है
और एक दिन प्रकृति का अंत निश्चित कर स्वयं ही धरती में समाजlती है।
“और इसलिए तो वह धरती माँ कहलाती है।”
Leeza
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