ग़ालिब की बरसी

ग़ालिब की बरसी
मैं फ़नाह हुआ तो तू भी तबाह हो गया,
मेरे मकबरे का तू भी गवाह हो गया

तू खुदा नहीं मेरा, मैं खुदा नहीं तेरा
तेरी बेखुदी से तो वार भी सप्ताह हो गया

मैं रौ तुझे या अपनी गुरबत को रौ ग़ालिब
तुझे खोया मैंने, हां खुदको ही मैं खो गया

फ़न्नह तू हुआ और बरबाद  मैं हो गया
गुमराह तू हुआ और रास्ता मैं खो गया

लापरवाह तू हुआ और बेबक  मैं हो गया
मरा तू और जिस्म मेरl मिट्टी हो गया।

मैं रौ तुझे या रौ अपने वजूद को ग़ालिब
तेरे जाने से मेरा वजूद ही खो गया

तू ना होता तो क्या मैं होता?  

मैं ना होता तो कमस्कम मुझे अफ़सोस तो ना होता

कसीदे पढ़ पढ़ कर ग़ालिब फ़लसफ़ा हो गया,
 ग़ालिब न होता तो क्या खुदा का कलमा होता

खुदा न होता तो क्या ग़ालिब इंसान होता ,
इस बेहस का अंत नहीं ग़ालिब

ग़ालिब को मरे हुए एक अरसा हो गया
मैं रौ तुझे या रौ ग़ालिब की बरसी को

ग़ालिब न होता, 
तो कोई और  दीवाना होता
 मुकम्मल तब भी ये जहां होता,

मुक्कमल तब भी गम ब्यान होता।

मैं रौ तुझे हा रौ अपने गम को ग़ालिब ,
हाकिम तो कई और आए सदियो बाद भी,

पर तुझसा जहाँ गिर्द ना कोई दूसरा होता।

Leeza

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